रिपोर्ट- अनुराग कोटनाला

फैशन के युग में बैंड बाजा ने ली “ढोल-दमाऊ” की जगह

ऐसा ही रहा तो वह दिन अब दूर नहीं कि जब आने वाली पीढ़ी को “ढोल-दमाऊ” व मशक बीन की कहानी इतिहास के पन्नों में पढ़ने को मिलेगी

कोटद्वार। “ढोल-दमाऊ” यह वाद्य यंत्र उत्तराखंड के पहाड़ी समाज के लोककला को संजोए रखे हुए और इनकी आत्मा से जुड़े हैं। इस कला का जन्म से लेकर मृत्यु तक घर से जंगल तक अर्थात प्रत्येक संस्कार और सामाजिक गतिविधियों में इनका प्रयोग होता आ रहा है। इनकी गूंज के बिना यहां कोई भी शुभ कार्य पूरा नहीं माना जाता है। इसलिए कहा जाता है कि पहाड़ों में विशेषकर उत्तराखंड में त्यौहार का आरंभ ढोल-दमाऊ के साथ होता है। लेकिन फैशन के दौर पर नहीं पीढ़ी अपने इन वाद्य यंत्रों की धुन से दूर होती नजर आ रही है किसी भी क्षेत्र की पहचान वहाँ की लोककला, परंपरा और संस्कृति पर निर्भर करती। अगर समय से अपनी संस्कृति को बचाने के लिए इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाली इस पीढ़ी को बचाया नहीं जाए तो आने वाले समय में यह वाद्य यंत्र सिर्फ इतिहास के पन्नों में ही देखने को मिलेंगे।

आपको बतादे की ढोल दमाऊ बजाने वालो में एक परिवार ग्रास्टन गंज , एक हल्दूखाता तथा एक झण्डीचौड में जिनमे भी जोड़ी पूरी नहीं है, वहीं दो चार परिवार उदयरामपुर नायवाद में उनके पास भी ढोल,दमाऊ में एक है एक नही। मशक बीन वाले दो ही व्यक्ति शेष है एक रामणी पुलिण्डा में व एक डाडामण्डी में।

बतादे की यह लोक कला के क्षेत्र में एक बड़ी त्रासदी है पिछले दो लॉकडाउन में हमने कोटद्वार में ही दो मशक व एक ढोल दमाऊ की जॊड़ी दार खोये है । ऐसे में इसका सरकार द्वारा सरक्षण होना अति आवश्यक। अन्यथा हम अपने ढोल दमाऊ व मशक बीन की पारम्परिक शैली को खो चुके होंगे। ढोल सागर सिर्फ गूगल व इतिहास में ही देखा जा सकेगा।

सरकार को इस शैली से जुड़े लोगों को निशुल्क वाद्ययंत्र तथा मासिक पेंशक देनी होगी, वरना रोजी रोटी के तलाश में यह बचे खुचे लोग भी इस विद्या को त्याग देंगे व भरण पोषण के लिये अन्य काम पर लग जायेगें ।

आजकल की दुनिया आधुनिक होती जा रही है। शादी व पार्टी आदि में डीजे अथवा बैंड प्रयोग होने लगा है, लेकिन उत्तराखंड की गढ़वाली संस्कृति में आज भी गढ़वाली लोग ढोल-दमाऊ का ही प्रयोग करते हैं और इसके ताल का आनन्द लेकर नृत्य करते हैं। देवभूमि उत्तराखंड में करोड़ों देवी-देवताओं का निवास स्थान माना गया है. यहां, प्रचलित कथाओं में दमाऊ को भगवान शिव का और ढोल को ऊर्जा का स्वरूप माना जाता है।

अपनी संस्कृति को बचाने के लिए हम सब को अपने घरों में होने वाले शुभ अवसरों पर ढोल-दमाऊ व मशक बीन बजाने वालें कलाकारों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन करना होगा, जिससे कि उनको भी समाज में सम्मान मिले और सम्मान के साथ वह अपनी रोजी रोटी कमा सके।

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